और आज में रुकना चाहती हूँ - सफीन
आज मुझे रुकने का मन है समय की शुरुआत से बह रही हूँ
आज तक ना रात देखी है , ना दिन ना मौसम ना आराम हर समय बहती हूँ
थक गयी हूँ पत्थरों से टकरा टकरा के बहुत समझाना पड़ता है
फिर भी नहीं सुनते आखिर ठहरे तो पत्थर ही जैसे कि ज़िद्दी बच्चे क्या कर सकती हूँ
लेकिन में भी तो पत्थर की बेटी हूँ टुकड़ों टुकड़ों में तोड़ देती हूँ
और समा लेती हूँ मेरे दामन में इन पत्थरों को ...
टूटे अहंकार के आख़िर में माँ जो ठहरी और फिर भी तक़दीर देखो मेरी
हर पल कोशिश करती हूँ समंदर से मिलने की और खुद समंदर बन जाती हूँ
में भी अपना अस्तित्व मिटा देती जैसे हर नारी करती है और फिर भी
नहीं मिल पाती इसी लिए रुकना है
उस घमंडी समंदर को ये याद दिलाने के लिए की मेरा अस्तित्व
उससे नहीं उसका मुझसे है
साथ मैं नदी हूँ में नारी हूँ और आज में रुकना चाहती हूँ और आज में रुकना चाहती हूँ |
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